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सिन्धो॑रिव प्राध्व॒ने शू॑घ॒नासो॒ वात॑प्रमियः पतयन्ति य॒ह्वाः। घृ॒तस्य॒ धारा॑ऽअरु॒षो न वा॒जी काष्ठा॑ भि॒न्दन्नू॒र्मिभिः॒ पिन्व॑मानः ॥९५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सिन्धो॑रि॒वेति॒ सिन्धाःऽइव। प्रा॒ध्व॒न इति॑ प्रऽअध्व॒ने। शू॒घ॒नासः॑। वात॑प्रमिय॒ इति॒ वात॑ऽप्रमियः। प॒त॒य॒न्ति॒। य॒ह्वाः। घृतस्य॑। धाराः॑। अ॒रु॒षः। न। वा॒जी। काष्ठाः॑। भि॒न्दन्। ऊ॒र्मिभि॒रित्यू॒र्मिः॑। पिन्व॑मानः ॥९५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:95


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (प्राध्वने) जल चलने के उत्तम मार्ग में (सिन्धोरिव) नदी की जैसे (शूघनासः) शीघ्र चलनेहारी (वातप्रमियः) वायु से जानने योग्य लहरें गिरें और (न) जैसे (काष्ठाः) संग्राम के प्रदेशों को (भिन्दन्) विदीर्ण करता तथा (ऊर्मिभिः) शत्रुओं को मारने के श्रम से उठे पसीने रूप जल से पृथिवी को (पिन्वमानः) सींचता हुआ (अरुषः) चालाक (वाजी) वेगवान् घोड़ा गिरे वैसे जो (यह्वाः) बड़ी गम्भीर (घृतस्य) विज्ञान की (धाराः) वाणी (पतयन्ति) उपदेशक के मुख से निकल के श्रोताओं पर गिरती हैं, उनको तुम जानो ॥९५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में भी दो उपमालङ्कार हैं। जो नदी के समान कार्यसिद्धि के लिये शीघ्र धावनेवाले वा घोड़े के समान वेगवाले जन जिनकी सब दिशाओं में कीर्ति प्रवर्त्तमान हो रही है और परोपकार के लिये उपदेश से बड़े-बड़े दुःख सहते हैं, वे तथा उनके श्रोताजन संसार के स्वामी होते हैं और नहीं ॥९५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(सिन्धोरिव) नद्या इव (प्राध्वने) प्रकृष्टश्चासावध्वा च तस्मिन्। सप्तम्यर्थे चतुर्थी (शूघनासः) क्षिप्रगमनाः। शूघनास इति क्षिप्रनामसु पठितम् ॥ (निघं०२.१५) (वातप्रमियः) वातेन प्रमातुं ज्ञातुं योग्याः (पतयन्ति) पतन्ति गच्छन्ति, चुरादित्वात् स्वार्थे णिच् (यह्वाः) महत्यः। यह्व इति महन्नामसु पठितम् ॥ (निघं०३.३) (घृतस्य) विज्ञानस्य (धाराः) वाचः (अरुषः) य ऋच्छत्यध्वानं सः (न) इव (वाजी) वेगवानश्वः (काष्ठाः) संग्रामप्रदेशान्। काष्ठा इति संग्रामनामसु पठितम् ॥ (निघं०२.१७) (भिन्दन्) विदारयन् (ऊर्मिभिः) शत्रुभेदनोत्थश्रमस्वेदोदकैः (पिन्वमानः) सिञ्चन् ॥९५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! प्राध्वने सिन्धोरिव शूघनासो वातप्रमियः काष्ठा भिन्दन्नूर्मिभिर्भूमिं पिन्वमानोऽरुषो वाजी न या यह्वा घृतस्य धाराः पतयन्ति, ता यूयं विजानीत ॥९५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्राप्युपमाद्वयम्−ये नदीवत् कार्यसिद्धये तूर्णगामिनोऽश्ववद् वेगवन्तः सर्वासु दिक्षु प्रवृत्तकीर्त्तयो जनाः परोपकारायोपदेशेन महान्ति दुःखानि सहन्ते, ते तेषां श्रोतारश्च जगत्स्वामिनो भवन्ति, नेतरे ॥९५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रातही दोन उपमालंकार आहेत. जी माणसे कार्यसिद्धीसाठी नदीप्रमाणे वेगवान किंवा घोड्याप्रमाणे गतिमान असतात, ज्यांची कीर्ती दशदिशांना फैलावते, ते परोपकारासाठी विज्ञानमय गंभीर वाणीने उपदेश करुन अतिशय दुःखही सहन करतात ते व त्यांचे श्रोते हे जगाचे स्वामी बनतात, इतर नव्हेत.